आचार्य श्रीराम शर्मा >> आत्मीयता का माधुर्य और आनंद आत्मीयता का माधुर्य और आनंदश्रीराम शर्मा आचार्य
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आत्मीयता का माधुर्य और आनंद
साधना के सूत्र
प्रेम द्वारा उस प्रेम स्वरूप की प्राप्ति में ही जीवन की सार्थकता है। इच्छा की अंतिम चरितार्थता प्रेम में ही है। साधारण दृष्टि से देखने पर मालूम होता है कि प्रत्येक प्राणी प्रेममय है। वह किसी न किसी से प्रेम करता ही है। माँ-बाप अपने बच्चों से, पुरुष स्त्री से, मित्र-मित्र से, साथी-साथी से। कोई धन, कीर्ति, यश, भव्य भवनों से प्रेम करता है, तो कोई प्रकृति से, तो कोई ईश्वर से। तात्पर्य यह है कि सृष्टि का कार्य संचालन प्रेम के माध्यम से ही हो रहा है। इस विश्वभुवन में प्रेम उपासना प्राणी मात्र का स्वाभाविक धर्म है। इसके बिना जीवन का अस्तित्व कायम नहीं रहता।
आत्म-साधना के पथ पर बढ़ता हुआ मनुष्य जब उन्नति की ओर अग्रसर होता है तो वह अंत में उस आत्म स्वरूप के दर्शन करता है जहाँ सर्वत्र आत्म तत्व के सिवा कुछ है ही नहीं। इसे ही विश्व प्रेम भी कहते हैं। इस विश्व प्रेम की प्राप्ति कैसे हो ? इसका मर्म बहुत कम लोग जानते हैं और उनमें से भी बहुत कम इसको प्राप्त कर पाते हैं।
त्याग और प्रेम का परस्पर घनिष्ठ संबंध है। "प्रेम तो बिना दिए जी नहीं सकता। "आप लीजिए मुझे नहीं चाहिए।" इस नीति से प्रेम की प्राप्ति की जा सकती है। "मैं ही लूँगा आपको नहीं दूंगा" की नीति से प्रेम स्वरूप की प्राप्ति तो दूर परस्पर का प्रेम भी समाप्त हो जाता है। उत्सर्ग पर ही, त्याग पर ही, प्रेम जीवित है।
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